अहिंसा परमो धर्म: सूत्र के उपासक शन्तिदूत महात्मा गांधी का गृहराज्य गुजरात जो 2002 में हुए गोधरा नरसंहार तथा इसके तत्काल बाद राज्य में हुए सांप्रदायिक दंगों के कारण 'राष्ट्रीय शर्म' के रूप में बदनाम हो गया था इन दिनों वही गुजरात राज्य एक बार फिर चर्चा में है। परंतु इस बार चर्चा का विषय दंगे, सांप्रदायिकता, आक्रामकता या सांप्रदयिक विद्वेश नहीं बल्कि गुजरात के मुख्यमंत्री तथा 2002 के सांप्रदायिक दंगों में राज्य प्रायोजित दंगे कहे जाने का आरोप झेलने वाले मोदी द्वारा 17 सितंबर से लेकर 19सितंबर तक किया गया तीन दिवसीय तथाकथित 'सद्भावना उपवास' है। नरेंद्र मोदी के इस गांधीवादी तौर-तरीके से किए जाने वाले उपवास को देखकर पूरा देश आश्चर्यचकित है। प्रश्र किए जा रहे हैं कि 2002 के दंगों के लिए जि़ मेदार व बदनाम नरेंद्र मोदी को आखिऱ अचानक सद्भावना उपवास का ज्ञान कैसे आ गया? क्या मोदी वास्तव में लगभग सौ करोड़ रुपये खर्च का किया जाने वाला यह तथाकथित उपवास अपनी अंतर्रात्मा की आवाज़ पर कर रहे हैं या फिर इसके पीछे कई महत्वपूर्ण राजनैतिक कारण हैं? राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि नरेंद्र मोदी अगले वर्ष राज्य में होने वाले विधान सभा चुनावों के मद्देनज़र राज्य में अपनी छवि अब साफ़ सुथरी व धर्म निरपेक्ष नेता के रूप में स्थापित करना चाह रहे हैं। जबकि तमाम विश्लेषक इस से भी आगे बढ़कर यह कयास लगा रहे हैं कि नरेंद्र मोदी का सद्भावना उपवास का दिखावा राष्ट्रीय राजनीति को मद्देनज़र रखते हुए है तथा इस बात की भी प्रबल संभावना है कि भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी को देश के अगले प्रधान मंत्री के रूप में प्रचारित करे।
नरेंद्र मोदी के इस तीन दिवसीय सद्भावना उपवास का वैसे तो कई स्तर पर विरोध किया जा रहा है। उनके राजनैतिक विरोधियों विशेषकर कांग्रेस पार्टी द्वारा उनके विरुद्ध किए जा रहे उपवास विरोधी प्रचार को भी इतना अधिक महत्व दिए जाने की आवश्यकता इसलिए नहीं है क्योंकि जिस प्रकार कांग्रेस द्वारा उठाया गया कोई भी कदम अथवा कांग्रेस का कोई भी फैसला भाजपा या उनके नेताओं को नाटक प्रतीत होता है उसी प्रकार कांग्रेस का भी नरेंद्र मोदी के सद्भावना उपवास से सहमत न होना या उसकी खिल्ली उड़ाना कोई चौंकाने वाली बात हरगिज़ नहीं है। वैसे भी नरेंद्र मोदी के तथाकथित सद्भावना उपवास को नाटक बताकर स्वयं कांग्रेस जनों का अहमदाबाद के साबरमती आश्रम में राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री शंकर सिंह वाघेला के नेतृत्व में जवाबी उपवास पर बैठना भी अपने-आप में किसी मज़ाक़ से कम नहीं है। परंतु इसके अतिरिक्त जिस स्तर पर नरेंद्र मोदी के उपवास का पर्दाफाश हो रहा है उस पर अवश्य ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है।
उदाहरण के तौर पर देवबंद स्थित दारुल-उलूम के पूर्व कुलपति गुलाम मोहममद वस्तानवी के बयान को ही ले लीजिए। गौरतलब है कि वस्तानवी वही मुस्लिम धार्मिक नेता हैं जिन्होंने दारुल-उलूम, देवबंद का कुलपति बनने के फौरन बाद एक साक्षात्कार में यह कहा था कि गुजरात के मुसलमानों को 2002 के सांप्रदायिक दंगों को अब भूल जाना चाहिए और इससे आगे बढऩा चाहिए। वस्तानवी के इस बयान के बाद भाजपा में उत्साह का माहौल देखा गया था तथा यह माना जाने लगा था कि गुजराती मूल के मुस्लिम धर्मगुरु होने के नाते वस्तानवी का इस प्रकार का बयान देना नरेंद्र मोदी के लिए काफी राहत का सबब बन सकता है। हालांकि वस्तानवी को अपने इस वक्तव्य का खमियाज़ा भी भुगतना पड़ा तथा दारुल-उलूम देवबंद की सर्वोच्च परिषद ने उन्हें उनके पद से हटा दिया। वही गुलाम मोह मद वस्तानवी अब नरेंद्र मोदी के इस उपवास को एक राजनैतिक नाटक बता रहे हैं। इतना ही नहीं बल्कि इस आलेख का शीर्षक भी वस्तानवी के ताज़े वक्तव्य से ही उद्धृत किया गया है। वस्तानवी ने कहा है कि मोदी का सद्भावना उपवास महज़ एक दिखावा है। उन्होंने कहा कि सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली जैसी कहावत नरेंद्र मोदी पर पूरी तरह से खरी उतरती है। कल तक भाजपा की आंखों का तारा बने वस्तानवी ने स्पष्ट रूप से कहा कि नरेंद्र मोदी ने हालांकि अपने इस उपवास को सद्भावना मिशन का नाम ज़रूर दिया है परंतु उनके इस नाटक का सद्भावना से कोई लेना-देना नहीं है। बल्कि अगले वर्ष गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र ही यह सारी कवायद की जा रही है। और यह सबकुछ पूर्णतया एक सियासी नाटक है।
इसी प्रकार मोदी के सद्भावना मिशन की हवा निकालते हुए गुजरात दंगों में प्रभावित नरोदा पाटिया नामक प्रसिद्ध सामूहिक नरसंहार के पीडि़त लोगों ने मोदी के उपवास के विरोध स्वरूप अहमदाबाद में एक धरना आयोजित किया। 'अनहद' नामक एक गैर सरकारी संगठन के तत्वावधान में आयोजित इस धरने में सैकड़ों दंगा पीडि़त लोग न्याय की गुहार लगा रहे थे तथा दंगों के जि़म्मेदार लोगों को सज़ा दिए जाने की मांग कर रहे थे। परंतु नरेंद्र मोदी की राज्य पुलिस ने उस धरना स्थल पर जाकर मोदी के कथित सद्भावना उपवास विरोधी इस धरने को बलपूर्वक तितर-बितर कर दिया तथा तमाम धरना देने वाले लोगों को गिर तार कर उन्हें जेल में डाल दिया। सवाल यह है कि क्या न्याय की मांग करना या दंगों के दोषियों को सज़ा दिए जाने की अवाज़ उठाना अपने-आप में जुर्म या अन्याय है? यदि नहीं फिर आखिर इन लोगों को जेल भेजने का औचित्य क्या है? और अगर मोदी सरकार या राज्य पुलिस द्वारा उठाया गया यह कदम सही मान लिया जाए फिर क्या देश को यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि नरेंद्र मोदी व भारतीय जनता पार्टी की नज़रों में इसी अन्यायपूर्ण शैली को ही 'सद्भावना मिशन' स्वीकार कर लेना चाहिए? इसी घटना के साथ-साथ गुजरात में इसी तथाकथित सद्भावना उपवास के दौरान एक घटना यह भी घटित हुई कि सामाजिक कार्यकर्ता तथा लाल कृष्ण आडवाणी के विरुद्ध लोकसभा चुनाव लड़ चुकीं मल्लिका साराभाई को भी गिर तार कर लिया गया। उन्होंने नरेंद्र मोदी पर दंगों के सिलसिले में रिश्वत देकर कुछ लोगों के मुंह बंद कराने जैसे गंभीर आरोप लगाए थे।
नरेंद्र मोदी के कथित उपवास का विरोध मोदी सरकार के पूर्व गृहमंत्री स्वर्गीय हरेन पांडया के परिजनों द्वारा भी खुलकर किया गया। हरेन पांडया का परिवार कांग्रेस पार्टी द्वारा आयोजित मोदी विरोधी उपवास में शामिल हुआ तथा नरेंद्र मोदी के उपवास को नाटक बताता हुआ तथा हरेन पांडया की हत्या के लिए न्याय मांगता हुआ देखा गया। गौरतलब है कि पिछले दिनों मोदी के एक और विश्वस्त गृहमंत्री रहे अमित शाह काफी दिनों तक सोहराबुद्दीन फजऱ्ी मुठभेड़ मामले में जेल की सलाखों के पीछे रह चुके हैं। इतना ही नहीं बल्कि इस समय लगभग आधा दर्जन पुलिस अधिकारी जिन पर दंगा-फ़साद कराने, दंगाईयों को संरक्षण देने तथा फजऱ्ी मुठभेड़ में शामिल होने जैसे संगीन आरोप हैं वे भी अभी जेल में हैं। ताज़ातरीन मामला संजीव भट्ट तथा राहुल शर्मा नामक गुजरात कैडर के दो प्रमुख आइपीएस अधिकारियों से जुड़ा देखा जा सकता है जो अपने स्पष्टवादी व कर्तव्यपूर्ण बयानों के द्वारा नरेंद्र मोदी के तथाकथित सद्भावना उपवास की नौटंकी को धत्ता बता रहे हैं। स्वयं भाजपा के सहयोगी गठबंधन दल जनता दल युनाईटेड के नेता व बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार न तो नरेंद्र मोदी जैसे विवादित व्यक्ति का बिहार में प्रवेश व उनका चुनाव प्रचार करना उचित मानते हैं न ही नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी के पांच सितारा उपवास में जाने की ज़हमत गवारा की।
वैसे भी नरेंद्र मोदी को अपनी छवि सुधारने तथा राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि एक सद्भावपूर्ण नेता के रूप में स्थापित करने की उस समय सूझी जबकि एक अमेरिकी संस्था द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में गुजरात के विकास कार्यों की प्रशंसा की गई। इसी के साथ-साथ भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने गुलबर्ग सोसायटी व राज्य के अन्य कई दंगा संबंधी मुकद्दमों की सुनवाई गुजरात में ही किए जाने का निर्देश भी जारी किया। बस इन्हीं दो बातों ने मोदी को गोया यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि अब वे लाल कृष्ण अडवाणी की ही तरह देश के भावी प्रधानमंत्री के सपने भी ले सकते हैं। परंतु भाजपा के ही एक नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री विजय गोयल की मानें तो यह वही अमेरिका है जिसने नरेंद्र मोदी को गुजरात दंगों में बदनाम होने के चलते अपने देश का वीज़ा देने तक से इंकार कर दिया था। लिहाज़ा जब अमेरिका को भाजपा मोदी को वीज़ा न देने की स्थिमि में अविश्वास की नज़रों से देखती है तो ऐसे में उसी अमेरिका द्वारा मोदी के विकास की तारीफ करना आखिर कितना महत्व रखता है? इसी प्रकार सुप्रीम कोर्ट के जिस फैसले को भाजपा मोदी की जीत के रूप में प्रचारित कर देश के लोगों को गुमराह कर रही है यह भी एक सोची-समझी साजि़श के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। कितने हैरत की बात है कि उच्चतम न्यायालय गुजरात के कुछ मुकद्दमों को राज्य में चलाए जाने तथा पीडि़त पक्ष की बातें सुने जाने का निर्देश दे रहा है तो नरेंद्र मोदी व भाजपा सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश को नरेंद्र मोदी को अदालती क्लीन चिट के रूप में प्रचारित कर रहे हैं। उपरोक्त परिस्थितियों में यह सोचना अपनी जगह पर वाजिब है कि क्या नरेंद्र मोदी का तथाकथित सद्भावना उपवास वास्तव में सद्भावना के लिए उठाया गया एक कदम था या फिर यह भी महात्मा गांधी के उपवास को बदनाम व कलंकित करने का एक तरीका?
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